भारतीय पुरा-वनस्पति विज्ञान के शिखर-पुरुष: प्रोफेसर बीरबल साहनी
नई दिल्ली: करोड़ों वर्ष पूर्व पृथ्वी पर कई प्रकार की वनस्पतियां मौजूद थीं। लेकिन, उनमें से अधिकांश अब जीवाश्म (फॉसिल) बन चुकी हैं। उनके अवशेष समुद्री किनारों, पहाड़ की चट्टानों, कोयले की खानों आदि स्थानों से प्राप्त होते रहते हैं। इन अवशेषों से तत्कालीन समय की महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त होती हैं, जिससे तत्कालीन जलवायु एवं वातावरणीय ताने-बाने को समझने में मदद मिलती है। ऐसे अध्ययनों में पुरा-वनस्पति विज्ञान की अहम भूमिका मानी जाती है।
भारत में जब भी पुरा-वनस्पति विज्ञान की बात होती है, तो प्रोफेसर बीरबल साहनी का नाम प्रमुख रूप से सामने आता है। प्रोफेसर बीरबल साहनी एक पुरा-वनस्पती वैज्ञानिक थे, जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के जीवावशेषों का अध्ययन कर इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे एक भू-वैज्ञानिक भी थे, और पुरातत्व में भी गहन रुचि रखते थे। उन्होंने भारत की वनस्पतियों का अध्ययन किया और पुरा-वनस्पति शास्त्र के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
बीरबल साहनी का जन्म 14 नवम्बर 1891 में शाहपुर जिले, जो अब पाकिस्तान में है, के भेड़ा नामक गाँव में हुआ था। बीरबल साहनी के पिता एक विद्वान, शिक्षाशास्त्री और समाजसेवी थे, जिससे घर में बौद्धिक और वैज्ञानिक वातावरण बना रहता था। बीरबल के मन में वैज्ञानिक रुचि और जिज्ञासा के बीज बचपन में ही अंकुरित होने लगे थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा लाहौर के सेन्ट्रल मॉडल स्कूल में हुई, और उसके पश्चात वह उच्च शिक्षा के लिये गवर्नमेंट कॉलेज यूनिवर्सिटी, लाहौर गए।
प्रसिद्ध वनस्पति-शास्त्री प्रोफेसर शिवदास कश्यप से उन्होंने वनस्पति विज्ञान को समझा। वर्ष 1911 में बीरबल साहनी लाहौर कॉलेज से अपनी शिक्षा समाप्त कर कैंब्रिज चले गए, जहाँ उन्होंने इमैनुएल कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की, और उसके बाद प्रोफेसर ए.सी. सीवर्ड के मार्गदर्शन में शोध कार्य किया। वर्ष 1919 में डॉ बीरबल सहानी भारत लौट आए, और दो वर्षों तक उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान विभाग के मुख्य आचार्य के रूप में पदभार संभाला। इसके पश्चात वे एक वर्ष के लिए पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर चले गए। वर्ष 1921 में उन्हें लखनऊ विश्वविद्यालय के वनस्पति विभाग का अध्यक्ष बनाया गया।
कैंब्रिज विश्वविद्यालय ने उनके शोधों को मान्यता दी और वर्ष 1929 में उन्हें एससी.डी. की उपाधि प्रदान की। वर्ष 1933 में प्रोफेसर बीरबल साहनी को लखनऊ विश्वविद्यालय में डीन के पद पर नियुक्त किया गया। वर्ष 1943 में लखनऊ विश्वविद्यालय में जब भूगर्भ शास्त्र विभाग स्थापित हुआ तब उन्होंने वहां भी अध्यापन कार्य किया।
प्रोफेसर बीरबल साहनी ने पहले जीवित वनस्पतियों पर शोध किया उसके बाद भारतीय वनस्पति अवशेषों पर शोध किये। उन्होने फॉसिल बजरहों और जीरा के दानों पर शोध की पहल की जो पहले जेरियत के नाम से जाना जाता था।
उन्होंने भारत में कोयले के भंडारो में संबंध स्थापित करने के लिए कोयले में मिलने वाले फॉसिल और जीरा दानों के लिए बकायदा एक तंत्र स्थापित किया। बीरबल साहनी ने अपने शोध के माध्यम से अनेक अजीबो-गरीब एवं दिलचस्प पौधों के बारे में दुनिया को जानकारी दी। डॉ बीरबल साहनी वनस्पति-विज्ञान और भू-विज्ञान दोनो के ही विशेषज्ञ थे।
प्रोफेसर बीरबल साहनी प्रयोगशाला के बजाय फील्ड में ही काम करना पसंद करते थे। वे प्रथम वनस्पति वैज्ञानिक थे जिन्होंने भारतीय गोंडवाना क्षेत्र के पेड़-पौधों का विस्तार से अध्ययन किया। उन्होंने पौधों के नए जींस की खोज की। उनके अविष्कारों ने प्राचीन पौधों और आधुनिक पौधों के बीच विकासक्रम के संबंध को समझने में काफी सहायता की।
प्रोफेसर बीरबल साहनी ने हड़प्पा, मोहनजोदड़ो एवं सिन्धु घाटी सभ्यता के बारे में भी अनेक निष्कर्ष निकाले। एक बार रोहतक के टीले के एक भाग पर हथौड़ा मारा और उससे प्राप्त अवशेष से अध्ययन करके बता दिया कि, जो जाति पहले वहाँ रहती थी, वह विशेष प्रकार के सिक्कों को ढालना जानती थी। उन्होने वे सांचे भी प्राप्त किए, जिससे वह जाति सिक्के ढालती थी। उन्होंने चीन, रोम, उत्तरी अफ्रीका में भी सिक्के ढालने की प्राचीन तकनीक का अध्ययन किया।
प्रोफेसर बीरबल साहनी ने वनस्पति विज्ञान पर कई पुस्तकें लिखी हैं। उनके अनेक शोध पत्र विभिन्न वैज्ञानिक जर्नलों में प्रकाशित हुए। डॉ बीरबल साहनी केवल वैज्ञानिक ही नहीं थे बल्कि चित्रकला और संगीत के भी प्रेमी थे। भारतीय विज्ञान कांग्रेस ने इनके सम्मान में ‘बीरबल साहनी पदक’ की स्थापना की है, जो भारत के सर्वश्रेष्ठ वनस्पति वैज्ञानिक को दिया जाता है। 10 अप्रैल 1949 को इस मशहूर वैज्ञानिक का निधन हो गया। लेकिन, आज भी दुनिया उनके योगदान को याद करती है। (इंडिया साइंस वायर)